Pashupati Nath - Nepal India

 पाशुपतिनाथ मंदिर -  नेपाल




नेपाल की राजधानी काठमांडू से 3 km उत्तर - पश्चिम में बागमती नदी के किनारे देवीपाटन गांव मे स्तिथ एक हिंदू मंदिर है जो पाशुपतिनाथ मंदिर के नाम से  भगवान शिव का सबसे प्रसिद्ध मंदिर माना जाता है । किंवदंतियों के अनुसार- इस मंदिर का निर्माण “सोमदेव राजवंश” के पशु-प्रेक्ष ने तीसरी सदी ईसा. पूर्व में कराया था । इस मंदिर के जैसे अन्य मंदिरों का भी निर्माण हुआ हैं जिनमें भक्तपुर 1480 ललितपुर 1566 और बनारस (19वीं शताब्दी के प्रारंभ में) शामिल हैं। मूल मंदिर कई बार नष्ट हुआ था इसका पुनः निर्माण “राजा नरेश भूपतेंद्र मल्ल” ने 1697 में करवाया था। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है जो पशुपति के रूप मे जानवरों के रक्षक है। यह एक सनातनी मंदिर हैं जो नेपाल की राजधानी काठमांडू से 3कि.मी उत्तर-पश्चिम में बागमती नदी के किनारे देवपाटन गाँव में स्थित शिव को समर्पित शिवालय हैं।  यह मंदिर नेपाल में शिव का सबसे पवित्र मंदिर माना जाता हैं । 15वीं शताब्दी के राजा “प्रताप मल्ल” से शुरु हुई एक परंपरा हैं कि मंदिर में चार पुजारी (भट्ट) और एक मुख्य पुजारी (मूल-भट्ट) दक्षिण भारत के ब्राह्मणों में से रखे जाते हैं जो कि आज तक अनवरत जारी हैं। शिवरात्रि का पर्व पशुपतिनाथ मंन्दिर में विशेष रूप से मनाया जाता हैं। नेपाल महात्म्य और हिमवतखंड पर आधारित स्थानीय कथा के अनुसार- भगवान शिव एक बार वाराणसी के अन्य देवताओं को छोड़कर बागमती नदी के किनारे स्थित मृगस्थली चले आयें जो बागमती नदी के दूसरे किनारे पर जंगल में हैं भगवान शिव वहां पर चिंकारे का रूप धारण कर निद्रा में चले गए । जब देवताओं ने उन्हें खोजा और वाराणसी वापस लाने का प्रयास किया तो उन्होंने नदी के दूसरे किनारे पर छलांग लगा दी । इस दौरान उनका सींग चार टुकडों में टूट गया इसके बाद भगवान पशुपति चतुर्मुख लिंग के रूप में प्रकट हुए। ‘पशुपति’ का अर्थ-पशु मतलब ‘जीवन’ और पति मतलब ‘स्वामी’ या मालिक अर्थात ‘।जीवन का देवता ’ पशुपतिनाथ दरअसल चार चेहरों वाला लिंग हैं। पूर्व दिशा की ओर वाले मुख को “तत्पुरुष” और पश्चिम की ओर वाले मुख को “सद्ज्योत” कहते हैं उत्तर दिशा की ओर देख रहा मुख “वामवेद” हैं तो दक्षिण दिशा वाले मुख को “अघोरा” कहते हैं । ये चारों चेहरे तंत्र-विद्या के चार बुनियादी सिद्धांत हैं । कुछ लोग ये भी मानते हैं कि चारों वेदों के बुनियादी सिद्धांत भी यहीं से निकले हैं माना जाता हैं कि- यह लिंग वेद लिखे जाने से पहले ही स्थापित हो गया था और इससे कई पौराणिक कहानियां भी जुड़ी हुई हैं। एक अन्य कथानुसार महाभारत में कुरुक्षेत्र की युद्ध के बाद अपने “बंधुओं कौरव” की हत्या करने के कारणवश  पांडव बेहद दुखी थे उन्होंने अपने भाइयों और सगे संबंधियों को मारा था जिसे “गोत्रवध” कहते हैं।  इस दोष से मुक्त होने के लिए पांडव शिव की खोज में निकल पड़े । भारत के उत्तराखण्ड राज्य में स्थित प्रसिद्ध केदारनाथ मंदिर की कथा के अनुसार पाण्डवों को स्वर्गप्रयाण के समय भैंसे के स्वरूप में शिव के दर्शन हुए थे जो बाद में धरती में समा गयें किंतु भीम ने उनकी पूँछ पकड़ ली थी ऐसे में उस स्थान पर स्थापित उनका स्वरूप “केदारनाथ” कहलाया तथा जहाँ पर धरती से बाहर उनका मुख प्रकट हुआ वह “पशुपतिनाथ” कहलाया । पशुपतिनाथ मंदिर मे भगवान शिव की  कलात्मक मूर्ति का निर्माण चमकते हुए गहरे तांबे के उग्र चट्टान-खंड में हुआ हैं । मंदिर शिवना नदी के तट पर स्थित हैं । इस मंदिर के निर्माण से जुड़े कुछ रोचक ऐतिहासिक मत भी हैं । जैसे मंदिर का निर्माण 13वीं शताब्दी में किया गया था । पशुपतिनाथ का यह मंदिर करोड़ों सनातनी हिंदुओं की अडिग आस्था का केन्द्र भी हैं। मंदिर मे भगवान शंकर के पांच मुख हैं जो विभिन्न अवतारों का प्रतिनिधित्व करतें हैं- 

 1. सद्योजाता ( वरूण

 2.  वामदेव ( उमा     महेश्वर)  

 3. तत्पुरुष 

 4.  अघोर 

 5. ईशान 

ये सभी शिव के पांच मुख का प्रतिनिधित्व करते हैं ।  पशुपतिनाथ विग्रह में चारों दिशाओं में एक मुख और एकमुख ऊपर की ओर है। प्रत्येक मुख के दाएं हाथ में रुद्राक्ष की माला और बाएं हाथ में कमंदल मौजूद है। इस मंदिर को 1979 में विश्व धरोहर स्थल के रूप में पहचान मिली । यह मुख्य मंदिर नेवारी वास्तुकला में बना है । दो-स्तरीय छतें सोने के आवरण के साथ तांबे की हैं। मंदिर आधार से शिखर तक 23 मीटर 7 सेमी की ऊंचाई वाले एक चौकोर आधार मंच पर टिका हुआ है। इसमें चार मुख्य द्वार हैं, जो सभी चांदी की चादरों से ढके हुए हैं। इस मंदिर में एक स्वर्ण - शिखर है। अंदर दो गर्भगृह हैं , आंतरिक गर्भगृह या गर्भगृह वह जगह है जहाँ मूर्ति रखी जाती है, और बाहरी गर्भगृह एक खुला गलियारा जैसा स्थान है।  भारत और नेपाल के अन्य शिव लिंगों के विपरीत, यह लिंग हमेशा अभिषेक के समय को छोड़कर अपने सुनहरे वस्त्र से सुसज्जित रहता है , इसलिए दूध और गंगा जल डालना केवल मुख्य पुजारियों के माध्यम से अनुष्ठान के दौरान ही संभव है।



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