Dwarkadhish Temple - Gujarat

 द्वारकापूरी ( सौराष्ट्र ) गुजरात


भगवान श्री कृष्ण की नगरी द्वारका की गणना सात पीढ़ियों मे भी कि जाती है। पुराणों के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने उत्तरकाल मे शांतिपूर्वक एकांत क्षेत्र मे रहने के उद्देश्य से सौराष्ट्र ( गुजरात ) के समुद्र तट पर द्वारकापुरी नामक नगरी बसाई। वहां उन्होंने अपना राज्य स्थापित किया । उन्होंने भगवान विश्वकर्मा द्वारा समुद्र में ( कुशस्थली द्वीप में ) द्वारकापुरी बनवाई और मथुरा से सभी यादवों को यहां ले आए । श्री कृष्ण के लीला संवरण के पश्चात द्वारका समुद्र में समा गई, केवल श्री कृष्ण का निजी भवन नहीं डूबा । वज्रनाथ ने यही पर श्रीरणछोड़राय के मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा की । यहां मर्दादित सागर भगवान श्री कृष्ण के चरणों को धोया करता था । यही कंचन और रत्नजड़ित मंदिर की सीढ़ियों पर खड़े होकर दीन - हीन सुदामा ने मित्रता कि दुहाई दी थी । अपने मित्र सुदामा का नाम सुनते ही श्री कृष्ण नंगे पैर उठकर उनसे मिलने को दौड़े थे । यही वह स्थान है जहां वियोगिनी मीरा ने अपने प्रियतम के चरणों पर अपने प्राण न्योछावर किए थे । सतयुग में महाराज रेवत ने समुद्र के मध्य की भूमि पर कुश बिछाकर यज्ञ किए थे , इससे इस जगह का नाम कुशस्थली पड़ा । बाद मे यहां कुश नामक दानव ने उपद्रव प्रारंभ किया । उसे मारने के लिए ब्रह्माजी राजा बलि के यहां से त्रिविक्रम भगवान ले आए । जब दानव शस्त्रों से नहीं मरा , तब भगवान ने उसे मूर्ति मे गाढ़कर उसके ऊपर उसी की आराध्य कुशेश्वर लिंग मूर्ति स्थापित कर दी । दैत्य के प्रार्थना करने पर भगवान ने उसे वरदान दिया कि - कुशेश्वर का जो दर्शन नहीं करेगा , उसकी द्वारका यात्रा का आधा पुण्य उस दैत्य को मिलेगा । एक दिन ऋषि दुर्वासा द्वारका आए , उन्होंने बिना कारण ही रुक्मणि जी को श्री कृष्ण से वियोग का श्राप दे दिया । जब रुक्मणि जी बहुत दुखी हुई तो भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे वियोग काल में श्री कृष्ण की मूर्ति का पूजन कर सकेंगी । कहा जाता है की वही श्रीरणछोड़राय की मूर्ति भी है । यही द्वारका का मुख्य मंदिर है । इसे द्वारकाधीश का मंदिर भी कहते है । गोमती की ओर से 56 सीढ़ी चढ़ने के बाद यह मंदिर मिलता है। यह मंदिर परकोटे के भीतर है , जिसमें चारों ओर द्वार हैं । मंदिर सात मंजिला और शिखरयुक्त है । इसका परिक्रमा पथ दो दीवारों के मध्य से है । इस मंदिर पर पूरे थान की ध्वजा उड़ती है । इसे चढ़ते समय महोत्सव होता है । यह विश्व की सबसे बड़ी ध्वजा है । कथा है कि भगवान श्री कृष्ण कालयवन के विरुद्ध युद्ध से भाग कर द्वारका पहुंचे । इस प्रकार उनका नाम रणछोड़ जी पड़ा । यह मंदिर 40 वर्ग फुट लंबा - चौड़ा और 140 फीट ऊंचा है । अंदर के फर्श पर सफेद और नील संगमरमर के टुकड़े कलात्मक ढंग से जुड़े हुए हैं । रणछोड़ जी की मूर्ति में द्वार के चौखट आदि में सोने और चांदी का काम है । मंदिर में मुख्य पीठ पर श्री रणछोड़राय की श्याम वर्ण चतुर्भुज मूर्ति है । निश्चित दक्षिणा देकर मूर्ति का चरण स्पर्श भी किया जाता है । मंदिर के ऊपर की चौथी मंजिल में अंबाजी की मूर्ति है । द्वारका की रणछोड़राय जी की मूल मूर्ति तो बोडाना भक्त डाकोर ले गए , अब वह डाकोर में है । उसके 6 महीने बाद दूसरी मूर्ति लाडवा ग्राम के पास एक वापी में मिली । वही मूर्ति अब मंदिर में विराजमान है । रणछोड़ जी के मंदिर के दक्षिण में श्री विक्रम भगवान जी का मंदिर है । इसमें त्रीविक्रम भगवान के अतिरिक्त राजा बलि तथा सनकादी चारों कुमारो की छोटी मूर्तियां है । यहां एक कोने में गरुड़ जी की मूर्ति भी है । रणछोड़ जी के मंदिर के उत्तर में प्रद्युमन जी का मंदिर है । इसमें प्रद्युम्न की श्याम वर्ण प्रतिमा है , पास ही अनिरुद्ध जी की छोटी मूर्ति है । पहले यहां तप्त मुद्रा लगती थी किंतु अब निश्चित दक्षिणा देने पर चंदन से चरण पादुका की छाप पुजारी पीठ पर लगा देते हैं । रणछोड़ जी के मंदिर के पूर्व में दुर्वासा जी का एक छोटा सा मंदिर है । रणछोड़ जी के मंदिर के उत्तर में मोक्ष द्वार के पास पश्चिम में कुशेश्वर शिव मंदिर है यहां कुशेश्वर के दर्शन किए बिना द्वारका यात्रा अधूरी मानी जाती है मंदिर में नीचे तहखाना में कुशेश्वर शिवलिंग तथा पार्वती की मूर्ति है । प्रधान मंदिर में पश्चिम की दीवार के पास कुशेश्वर से आगे अंबाजी पुरुषोत्तम जी दत्तात्रेय माता , देवकी , लक्ष्मी नारायण और माधव जी के मंदिर हैं प्रधान मंदिर में पूर्व की दीवार के पास दक्षिण से उत्तर सत्यभामा मंदिर, शंकराचार्य जी की गद्दी तथा जामवती , श्री राधा और लक्ष्मी नारायण के मंदिर है । यहां द्वार के पूर्व में कोलाभक्त का मंदिर है । श्री रणछोड़ जी के मंदिर के पूर्व घेरे के भीतर मंदिर का भंडार है , उसमें दक्षिण में जगतगुरु शंकराचार्य जी का शारदा मठ है ।

परिक्रमा - 

श्री रणछोड़जी के मंदिर से द्वारिकापुरी की परिक्रमा प्रारंभ होती है । मंदिर से पश्चिम में गोमती के घाटों पर होते हुए संगम तक जाकर उत्तर की ओर घूमते हैं यहां समुद्र में चक्र तीर्थ माना जाता है । आगे रत्नेश्वर महादेव ( नगर के बाहर ) सिद्धनाथ महादेव , ज्ञान कुंड , जुनी रामबाड़ी, और दामोदर कुंड ( यही भगवान ने नरसी भगत की हुंडी स्वीकार की थी ) आगे एक मील पर रुक्मिणी मंदिर तथा भागीरथी धारा , लौटने पर कैलाश कुंड हैं ( गिरगिट बने राजा मृग इसी में गिरे थे ) सूर्य नारायण मंदिर , भद्राकाली मंदिर , जय विजय ( नगर के पूर्व द्वार पर ) , निष्पाप कुंड होते हुए रणछोड़राय जी के मंदिर में परिक्रमा समाप्त हो जाती है। द्वीप में एक विशाल चौक में दो मंजिली तीन तथा तीन मंजिली पांच महल हैं । द्वार से होकर सीधे पूर्व की ओर जाने पर दाहिनी ओर श्री कृष्ण भगवान का महल मिलता है । इसमें पूर्व की ओर प्रद्युम्न का मंदिर है , मध्य में रणछोड़ जी का , मंदिर है , उसके दूसरी और त्रिविक्रम जी का मंदिर है । इसी मंदिर के आगे एक और पुरुषोत्तम जी देवकी माता तथा माधव जी के मंदिर है । कोट के दक्षिण पश्चिम की ओर अंबाजी का , उसके पूर्व में गरुड़ मंदिर है । रणछोड़ जी के महल के समीप सत्यभामा और जामवती के महल हैं , पूर्व की और साक्षी गोपाल , उत्तर की ओर रुक्मणी जी तथा राधा जी का मंदिर है । जामवती के महल में जामवती मंदिर से पूर्व लक्ष्मी नारायण मंदिर है । 


वर्तमान द्वारकापुरी गोमती द्वारका कही जाती है । यह नगरी प्राचीन द्वारका के स्थान पर प्राचीन कुशल स्थल में ही स्थित है । यहां अब भी प्राचीन द्वारका के अनेक चिन्ह रेट के नीचे यदा - कदा मिल जाते हैं । यह नगरी काठियावाड़ में पश्चिमी समुद्र तट पर स्थित है । यहां भगवान श्री कृष्ण का द्वारकाधीश नामक प्रसिद्ध मंदिर है , जो पर्यटकों के लिए आकर्षण का स्थल है । द्वारका वासी का दर्शन और स्पर्श करके भी मनुष्य बड़े-बड़े पापों से मुक्त हो स्वर्ग लोक में निवास करते हैं द्वारका सब क्षेत्र और तीर्थ से उत्तम कही गई है । द्वारका में होम , जप , तप , दान किए जाते हैं । वे सब भगवान श्री कृष्ण के समीप कोटीगुना एवं अक्षय होते हैं ।

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